पुर्वाई
जब मस्त चले पुर्वाई ,
झूमे यह दुनिया सारी ,
खुशियों की छाई महफ़िल ,
जब लहराई फसले सारी //
चली पुर्वाई पूरब से ,
हिल- डुल कर उमड़ के ,
छा गयी घटा आसमान में ,
ऐसा लगा जैसे अम्बर आ गया जहाँ में //
रिमझिम - सा यूँ लगा बरसने
चेतन - सा जड़ लगा तरसने ,
बूंद - बूंद से जब लहराई पुरवाई ,
दे दी छाया पेड़ों की छायी //
बूंद - बूंद जीवन लाया दुनिया के निचे ,
हर आशा एक किरण बन गयी ,
हर बूंद में अपना पाया इन आँखो के निचे ,
एक नन्हा पुष्प भी चल पड़ा हर कोई के पिछे //
है आशा उसकी कि वह भी तो है इक अंग इसका ,
उसकी ख़ुशी हो गयी मस्ती वह देगा छाया बड़ा होकर ,
कहता है - ' दूसरों के लिए ही जीना तो जीवन है ' ,
देखो प्यास बुझाने सागर चल पड़ा सुखी धरा पर //
( जिंदगी तो हर कोई जिता है , लेकिन अपने लिए ! क्या यही जीना है ,
नहीं यह स्वार्थ है , दुसरो के लिए जीना ही जीवन है ,जब एक नन्हा पौधा
यह तमन्ना रख सकता है तो फिर इन्शान क्यों नहीं , )
" किसी काम को हाँ मैं कर सकता हूँ --यह विश्वास है / लेकिन हाँ सिर्फ मैं ही कर सकता हूँ --यह घमंड है .// "
लेखक .....हरिकेश सिंह " अकेला "
harikeshakela.nit.iim@gmail.com
लेखक को पाए ..........www.harikeshakela.blogspot.in पर //..
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