Saturday 10 November 2012

पुर्वाई........

                                                  पुर्वाई

जब   मस्त   चले  पुर्वाई  , 
झूमे  यह  दुनिया  सारी  ,
खुशियों  की  छाई  महफ़िल , 
जब  लहराई  फसले  सारी  //

चली  पुर्वाई  पूरब  से  ,
हिल- डुल कर उमड़ के , 
छा  गयी  घटा  आसमान  में , 
ऐसा लगा जैसे अम्बर आ गया जहाँ में  //

रिमझिम - सा  यूँ लगा बरसने 
चेतन - सा जड़  लगा  तरसने  ,
बूंद  - बूंद  से  जब लहराई  पुरवाई  ,
दे दी छाया पेड़ों  की  छायी   //

बूंद - बूंद  जीवन  लाया  दुनिया  के  निचे  ,
हर  आशा  एक  किरण  बन  गयी , 
हर बूंद  में अपना पाया इन आँखो  के  निचे ,
एक नन्हा पुष्प भी चल पड़ा हर कोई के  पिछे  //

है आशा उसकी कि  वह भी तो है इक अंग इसका ,
उसकी ख़ुशी हो गयी मस्ती वह देगा छाया बड़ा होकर , 
कहता है - ' दूसरों के लिए ही जीना तो जीवन है '  , 
देखो  प्यास  बुझाने  सागर  चल पड़ा  सुखी  धरा पर  //

( जिंदगी तो हर कोई जिता है , लेकिन अपने लिए ! क्या यही जीना है ,
 नहीं यह स्वार्थ  है , दुसरो के लिए जीना ही जीवन है ,जब एक नन्हा पौधा 
यह तमन्ना रख सकता  है तो फिर इन्शान क्यों नहीं , )  

" किसी काम को हाँ मैं कर सकता हूँ --यह  विश्वास  है  / लेकिन हाँ सिर्फ मैं ही कर सकता हूँ  --यह घमंड है .// " 

         लेखक .....हरिकेश सिंह  " अकेला  "
harikeshakela.nit.iim@gmail.com

लेखक  को पाए ..........www.harikeshakela.blogspot.in  पर  //.. 

  

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